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करूणा-कुंज / जयशंकर प्रसाद

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क्लान्त हुआ सब अंग शिथिल क्यों वेश है
मुख पर श्रम-सीकर का भी उन्मेष है
भारी भोझा लाद लिया न सँभार है
छल छालों से पैर छिले न उबार है

चले जा रहे वेग भरे किस ओर को
मृग-मरीचिका तुुम्हें दिखाती छोर को
किन्तु नहीं हे पथिक ! वह जल है नहीं
बालू के मैदान सिवा कुछ है नहीं

ज्वाला का यह ताप तुम्हें झुलसा रहा
मनो मुकुल मकरन्द-भरा कुम्हला रहा
उसके सिंचन-हेतु न यह उद्योग है
व्यर्थ परिश्रम करो न यह उपयोग है

कुसुम-वाहना प्रकृति मनोज्ञ वसन्त है
मलयज मारूत प्रेम-भरा छविवन्त है
खिली कुसुम की कली अलीगणा घूमते
मद-माते पिक-पुंज मंज्जरी चूमते

किन्तु तुम्हें विश्राम कहाँ है नाम को
केवल मोहित हुए लोभ से काम को
ग्रीष्मासन है बिछा तुम्हारे हृदय में
कुसुमाकर पर ध्यान नहीं इस समय में

अविरल आँसू-धार नेत्र से बह रहे
वर्षा-ऋतु का रूप नहीं तुम लख रहे
मेघ-वाहना पवन-मार्ग में विचरती
सुन्दर श्रम-लव-विन्दु धरा को वितरती

तुम तो अविरत चले जा रहे हो कहीं
तुम्हें सुघर से दृष्य दिखाते हैं नहीं
शरद-शर्वरी शिशिर-प्रभंजन-वेग में
चलना है अविराम तुम्हें उद्वेग में

भ्रम-कुहेलिका से दृग-पथ भी भ्रान्त है
है पग-पग पर ठोकर, फिर नहि शान्त है
व्याकुल होकर, चलते हो क्यो मार्ग में
छाया क्या है नहीं कही इस मार्ग में

त्रस्त पथिक, देखो करूणा विश्‍वेश की
खड़ी दिलाती तुम्हें याद हृदयेश की
शाीतापत की भीति सता सकती नही
दुख तो उसका पता न पा सकता कहीं

भ्रान्त शान्त पथिकों का जीवन-मूल है
इसका ध्यान मिटा देना सब भूल है
कुसुमित मधुमय जहाँ सुखद अलिपुज्ज है
शान्त-हेतु वह देखो ‘करूणा-कुंज है