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ठहरो / जयशंकर प्रसाद

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वेेगपूर्ण है अश्‍व तुम्हारा पथ में कैसे
कहाँ जा रहे मित्र ! प्रफुल्लित प्रमुदित जैसे
देखो, आतुर दृष्टि किये वह कौन निरखता
दयादृष्टि निज डाल उसे नहि कोई लखता

‘हट जाओ’ की हुड़्कार से होता है भयभीत वह
यदि दोगे उसको सान्त्वना, होगा मुदित सप्रीत वह

उसे तुम्हारा आश्रय है, उसको मत भूलो
अपना आश्रित जान गर्व से तुम मत फूलो
कुटिला भृकुटी देख भीत कम्पित होता है
डरने पर भी सदा कार्य में रत होता है

यदि देते हो कुछ भी उसे, अपमान न करना चाहिये
उसको सम्बोधन मधुर से तुम्हें बुलाना चाहिये

तनक न जाओ मित्र ! तनिक उसकी भी सुन लो
जो करहता खाट धरे, उसको कुछ गुन लो
कर्कष स्वर की बोल कान में न सुहाती है
मीठी बोली तुम्हें नहीं कुछ भी आती है

उसके नेत्रों में अश्रु है, वह भी बड़ा समुद्र है
अभिमान-नाव जिस पर चढ़े हो वह तो अति क्षद्र है

वह प्रणाम करता है, तुम नहिं उŸार देते
क्यों, क्या वह है जीव नहीं जो रूख नहिं देते
कैया यह अभिमान, अहो कैसी कठिनाई
उसने जरो कुछ भूल किया, वह भूलो भाई

उसका यदि वस्त्र मलीन है, पास बिठा सकते नहीं
क्या उज्जवल वस्त्र नवीन इक उसे पिन्हा सकते नहीं
कुंचित है भ्रू-युगल वदन पर भी लाली है
अधर प्रस्फुरित हुआ म्यान असि से खाली है
डरता है वह तुम्हें देख, निज कर को रोको
उस पर कोई वार करे तो उसको टोको

है भीत जो कि संसार से, असि नहिं है उसके लिये
है उसे तुम्हारी सान्त्वना नम्र बनाने के लिये