भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सूंड / सुधीर सक्सेना

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:03, 13 जनवरी 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुधीर सक्सेना |संग्रह=काल को भी नहीं पता / सुधीर सक्सेन...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज




दुनिया भर के प्रेमप्रसंग

भरे पड़े हैं होठों की करामात से

प्रागैतिहासिक काल से लेकर

उत्तर आधुनिक काल तक

वर्चस्व है इन्हीं होठों का

काव्य में, कथा में, कादम्बरी में

और तो और

फलक पर उकेरे चित्रों में भी

हावी हैं होंठ


जब तक ओट में हैं, ठीक हैं

अन्यथा निरंकुश हो सूंड बन जाते हैं यही होंठ

और गज़ब ढाते हैं ।

इस कदर की बात बनाए न बने

और कहो तो अतिरंजित लगे अनायास,

इनकी पहुँच से परे नहीं

कोई भी गोलार्द्ध,

होंठ बन जाएँ सूंड तो निरर्थक हैं सारे उपचार


दुनिया को डर हाथी से नहीं

हाथी की सूंड़ से है,

मगर किया क्या जाए कि इन दिनों

सप्त महाद्वीपों में एक साथ नज़र आ रही है सूंड ।