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सूंड / सुधीर सक्सेना
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दुनिया भर के प्रेमप्रसंग
भरे पड़े हैं होठों की करामात से
प्रागैतिहासिक काल से लेकर
उत्तर आधुनिक काल तक
वर्चस्व है इन्हीं होठों का
काव्य में, कथा में, कादम्बरी में
और तो और
फलक पर उकेरे चित्रों में भी
हावी हैं होंठ
जब तक ओट में हैं, ठीक हैं
अन्यथा निरंकुश हो सूंड बन जाते हैं यही होंठ
और गज़ब ढाते हैं ।
इस कदर की बात बनाए न बने
और कहो तो अतिरंजित लगे अनायास,
इनकी पहुँच से परे नहीं
कोई भी गोलार्द्ध,
होंठ बन जाएँ सूंड तो निरर्थक हैं सारे उपचार
दुनिया को डर हाथी से नहीं
हाथी की सूंड़ से है,
मगर किया क्या जाए कि इन दिनों
सप्त महाद्वीपों में एक साथ नज़र आ रही है सूंड ।