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अद्वैत / प्रवीण काश्‍यप

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निज अन्तस् पर अधिकार नहि बँचल
आकर्षणक केन्द्र एकमात्र अहीं टा छी
हिलकोर-झंझाक साम्राज्य अछि समुद्र मे व्याप्त
ज्वार-भाटा अवतीर्ण भऽ रहल अछि
हे चन्दा! एकमात्र अहीं टा छी।
हे कामलिनी हमर कोन ठेकान?
बुन्न बुन्न मधुक लेल एहि फूल ओहि पात!
कखनहूँ मंदिर चलि गेलहूँ
कखनहुँ साधैत मसान।
किंवा, अनासक्त योगी, रसराज भोगी!
आब संग्रह बन्न, केवल प्रेम-विश्राम!
पाणिग्रहण सँ विक्षेपक अन्त
हमर-अहाँक द्वैतक अन्त!
निरन्तर, निर्बाध बहैछ, अद्वैतक धार
एकलरूप कृष्ण-राधिकाक अभिसार।
विस्मृत भेल जाइत छी;
निकटता वा दूरीक भाषा,
अर्थक्षीण भऽ रहल अछि;
की कहू, अक्खर ऋषिक अनन्त यात्रा
अनन्त तपस्या भंग कयलनि अप्सरा!
हमर तप-बल मात्र आब
पीड़ा-अहंकारक छाया बुझाना जाइछ
जकर सूरज अस्ताचलगामी!
आब शुरू होयत राति
एहिमे कोनो पार्थक्य नहि
ज्ञानेन्द्रिय निष्प्रयोजन, शिथिल होओ!
मोक्षक मार्ग मात्र मिलन, प्रेम
हम निर्वाण प्राप्त कयलहुँ
सभ सीमा, बंधन, उत्तेजना सँ मुक्त
कोनो अनुभव, व्यक्त, व्याप्ति
संकल्पक परिकल्पना सँ मुक्त
निरपेक्ष सत्ता युगल अद्वैतक!
एक नव रूप, नव गुण नव धर्म अहाँक
जे सर्वथा मुक्त अछि कर्म नियोजित संस्कार सँ
पूर्ण दीप्ति, कांति उर्जाक प्रतिमूर्ति
अहाँ अपन संपूर्ण मालिन्यक उत्सर्ग कऽ देलहुँ
हमर अद्वैतक परिनिर्वाण मे!