नहि अयलहुँ अहाँ / प्रवीण काश्यप
भोर भेल नहि अयलहुँ अहाँ
तिमिर में नभक तारा बनलहुँ;
पराती भेल नहि अयलहुँ अहाँ।
समय-असमयक परिभाषा में,
अनन्त चुप्पी छोड़ि गयलहुँ अहाँ;
भोर भेल नहि अयलहुँ अहाँ।
पलक-अपलक क्षण-क्षण में
जीवन तरंगक पल-पल में
घनघोर कालिमा घोरि गयलहुँ
भोर भेल नहि अयलहुँ अहाँ।
विभावरी केर स्नेहिल शाीतलता
प्रेम उत्साह हठ-व्याकुलता
निज धर्म मानि लऽ गयलहुँ
भोर भेल नहि अयलहुँ अहाँ।
माटिक इ जीवन छूटल
अधम शरीरक बंधन टूटल
तन्मय-उन्मनक खंदक पाटि कऽ
निजधाम-अनाम चलि गयलहुँ अहाँ
भोर भेल नहि अयलहुँ अहाँ!
शोक संतप्त हृदय-वेदना
अकिंचनता देखा गयलहुँ अहाँ
मोह-ममताक आँचर घिचि लेलहुँ
भोर भेल नहि अयलहुँ अहाँ।
सुर छुटल, जीन राग-विराग;
तंद्रा-टूटल, आसक्ति मोह-विछोह;
अपन-आनक सीमा छोड़ि कऽ
मात्र अनन्त यात्री भऽ गयलहुँ;
प्रेम वीणाक तार तोड़ि गयलहुँ अहाँ
भोर भेल नहि अयलहुँ अहाँ।