भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मोम होइत मन / प्रवीण काश्यप
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:21, 4 अप्रैल 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रवीण काश्यप |संग्रह=विषदंती व...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
जरल मर
घमायल वसन
सटका लेने पाछाँ दौडै़त महादेव!
स्वप्नो में अहीं लेल
उलहना सुनै छी
दिन बितबाक प्रतीक्षा मे
दीन!
गमबै छी!
ओछाउनक धाह सँ सीदित
तन कें
कोमल स्पर्शक आभास मे
भुलबै छी
भोकासी पाड़ि कऽ कानऽ लेल
प्रतीक्षा कोनो छातीक
बुझल अछि अहूँ कोनो कोनमे
हिचकै छी
मुदा जखन बोले नहि अछि
हमर अपना काबू मे
तखन मनक की कथा?
तें अपनो तड़पै छी आ
अहूँ कें तड़पाबै छी।