भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पितृत्व / प्रतिभा सक्सेना
Kavita Kosh से
Dhirendra Asthana (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:12, 4 अप्रैल 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रतिभा सक्सेना |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
नहीं,
मैं नहीं एकान्त निर्मात्री,
इस सद्य-प्रस्फुट जीवन की,
रचना मेरी, आधान तुम्हारा
सँजो कर गढ़ दिया मैंने नया रूप .
प्रेय था!
पौरुष का माधुर्य छलक उठा जब
नयनों में वात्सल्य बन,
जैसे चाँदनी में नहाई बिरछ की डाल,
स्निग्ध कान्ति से दीप्त तुम्हारा मुख!
मुग्ध हो गई मैं .
कृतज्ञ दृष्टि कह गई-
'जहाँ मैं अगुन-अरूप-अव्यक्त रहा,
तुमने ग्रहण किया.
प्रतिष्ठित कर दिया मुझे!
अपने से पार
पुनर्जीवन पा गया मैं,
तुम्हारे रचे प्रतिरूप में! '
सृष्टि का श्रेय आँचल में समाये
मुदित परितृप्ति का प्रसाद,
मिल गया मुझे,
और देहानुभूतियों से परे,
मन की विदेह-व्याप्ति!