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उलझती सुलझती औरतें / किरण मिश्रा
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बीते समय में
छत पर जुट आती थीं औरते
झाड़ती थीं छत को, मन को
बनाती थी पापड़, बड़ियाँ अचार
साथ में बनाती थी ख़्वाब
रंगीन ऊन के गोले
सुलझाते-सुलझाते
उलझती थी बारम्बार ।
पर आज की औरते
जाती नहीं छत पर ।
उनके पाँव के नीचे छत नहीं पुरी दुनिया है
उनके पास है जेनेटिक इंजीनियरिंग, एंटी-एजिंग, क्लोनिंग , आटोमेंटेंशन
जिनके एप्लीकेशन में उलझी
सुलझाती है पूरी दुनिया की उलझने ।