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जुड़ो जमीं से कहते थे जो वो ख़ुद नभ के दास हो गए / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

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|संग्रह=ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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जुड़ो ज़मीं से कहते थे जो वो ख़ुद नभ के दास हो गये।

आम आदमी की झूठी चिन्ता थी जिनको, ख़ास हो गये ।

 

सबसे ऊँचे पेड़ों से भी ऊँचे होकर बाँस महोदय,

आरक्षण पाने की ख़ातिर सबसे लम्बी घास हो गये।



तन में मन में पड़ीं दरारें, टपक रहा आँखों से पानी,

जब से तू निकली दिल से हम सरकारी आवास हो गये।



बात शुरू की थी अच्छे से सबने ख़ूब सराहा भी था,

लेकिन सबकुछ कह देने के चक्कर में बकवास हो गये।



ऐसे डूबे आभासी दुनिया में हम सब कुछ मत पूछो,

रिश्ते, नाते और दोस्ती सबके सब आभास हो गये।



शब्द पुराने, भाव पुराने रहे ठूँसते हर मिसरे में,

कायम रहे रवायत इस चक्कर में हम इतिहास हो गये।