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नदी और मैं / किरण मिश्रा
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मैंने कहा नदी से
तू और मैं एक जैसे
मैं प्रीत का तूफ़ान यादों की कश्ती से खेती
तू भी कितने तो तूफ़ान सहती
तू मिटती-बनाती लहरों के खेल में
मैं भँवर में रहती गिरस्ती की जेल में
तू ख़ामोश बहती लहरों के साथ
मैं भी बहती ज़िन्दगी के बहाव के साथ
तू नि:शब्द हो समेट लेती है सब कुछ अन्दर
मैं समेट लेती हूँ सबके दुःख अन्तस
तू बँधी है किनारो की बाधा से
मैं बँधी हूँ समाज की मर्यादा से
नदी तेरा मेरा सुख दुःख एक है
किनारों के पार विध्वंस है
आ धर्म निभाएँ
किनारों के भीतर ही रहा जाए
सृजन धरा पर करा जाए