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सम्भावनाओं के गीत / किरण मिश्रा

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तुम्हे सुना था मैंने
सावन की गीली हवाओं में
जब रोपती थी तुम कोई गीत नया
जब साँझ पड़े अँधेरा हाथ पसारे
भर रहा होता बाँहों में दिन को
 
दिया जला प्रकाश को रस्ता दिखाती
वो तुम ही थी
अशोक को साक्षी बना
अस्तित्व की रक्षा करती
वो भी तुम थी
इतिहास में मानवता की लाज बचाती
तुम ही थी कोई और नहीं

फिर आज तुम क्यों भूल बैठी हो ख़ुद को
तोड़ दो वक़्त की बाड़ें
बिछा लो समय को अपने लिए
विकसित करो अपने अन्दर
जीवन कर्म का सौन्दर्य
फिर से सुनाओ संभावनाओं के गीत