भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हृदय पहने होता है बादल के चीर / ओसिप मंदेलश्ताम
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:26, 14 अप्रैल 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ओसिप मंदेलश्ताम |अनुवादक=अनिल जन...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
हृदय पहने होता है बादल के चीर
और पत्थर-सा लगता है शरीर
जब तक कि ईश्वर तय नहीं करे
कवि के रूप में मनुष्य की तकदीर
फिर उसे अनुराग-सा हो जाता है
कष्ट भी ज्यों राग-सा हो जाता है
शरीर उसका बन जाता है छलावा
शब्द ही हाड़-माँस सा हो जाता है
स्त्रियों की तरह उसे लुभाते हैं विषय
लेता है कभी मनोगत् भाव की शरण
फिर अन्धकार में डूब जाता है कवि
पकड़ लेता है अनेक रहस्यमय क्षण
प्रतीक्षा करता है वह ऐसी किसी भावना की
गीत में ढल जाए जो और उसकी विजय हो
सहज सरल शब्द-संयोजन होती है कविता
पर ऐसा लगे जैसे वह विवाह रहस्यमय हो
1910