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अनछुए फूल चुनकर रची हैं प्रिये / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

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अनछुए फूल चुनकर रची हैं प्रिये।
प्रीत की अल्पनाएँ सजी हैं प्रिये।

इनपे कोई ग़ज़ल मैं न कह पाऊँगा,
आज के भाव बेहद निजी हैं प्रिये।

तन की वंशी पे मेंहदी रची उँगलियाँ,
रेशमी रागिनी छेड़ती हैं प्रिये।

ऐसे घबराओ मत रोग है ये नहीं,
प्यार में रतजगे कुदरती हैं प्रिये।

प्यास, सिहरन, जलन, दौड़ती धड़कनें,
ये सभी प्रेम की पावती हैं प्रिये।

एक दूजे का आओ पढ़ें हाल-ए-दिल,
अब हमारे नयन डॉयरी हैं प्रिये।