भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दिया ही जल रहा है / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:03, 18 अप्रैल 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र |संग्रह=ग़ज़ल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
दिया ही जल रहा है।
महल क्यूँ गल रहा है।
मैं लाया आइना क्यूँ,
ये सबको खल रहा है।
खुला ब्लड बैंक जिसका,
कभी खटमल रहा है।
डरा बच्चों को ही बस,
बड़ों का बल रहा है।
करेगा शोर पहले,
वो सूखा नल रहा है।
उगा तो जल चढ़ाया,
अगन दो ढल रहा है।