भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कदे-कदे / निशान्त

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:09, 30 अप्रैल 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निशान्त |संग्रह=धंवर पछै सूरज / नि...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कदे-कदे दिनुग्यै
उठती बेळा
का काम माथै जांवतां
क्यूं नीं होवै म्हारै में किरकौ
जद कै चालतो रैणो
कुदरत रौ नेम है
सूरज-हवा-पाणी
सदा चालता रैवै

आखी जिया-जूण
हर बगत
कीं न कीं करती रैवै

बो देखो ! उण भर्यो है
दिनुगै पै’ली
सब्जी रो गाडो
अब जासी गांवां में
तपतै तावड़ै
बेच सी सारै दिन सब्जी

उण लाद्यो है
साइकल पर कपड़ो
कित्ता ई साइकिलआळा
आ बड़्या है कस्बै में
ले’र दूध
गाडैआळा
गाडा ले’र निकळ्या है
आखै दिन करैला ढुआई

मजूर निकळग्या है- मजूरी पर
भट्ठां पर ईंटां थपीज री है/पक री है

किसानां री तो बात ही के है
बै तो दिन-रात
भाजता रैवै
घाटो सैय’र खेती करै

सै’र री जिन्दगी नै
सोखी गिणां
पण बाणियां-बकाल
सै दिनुगै सूं ले’र
रात तांई भाज्या फिरै
सर्दी गिणै न गर्मी

म्हारै सूं बडा
म्हारा ई कई रिस्तेदार
घणा ई पचै
फेर म्हारै में कदे-कदे
ओ आळस क्यूं आवै
म्हारी समझ रै खातै में तो
कीं कमी नीं लखावै
स्यात म्हारै हिवड़ै में
बां कई पळगोडां री
छियां पड़्योड़ी है
जका म्हैं कदे देख्या हुसी
इनै-बिनै
अठी-उठी।