भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ओ एक ही कली की / अज्ञेय
Kavita Kosh से
Sumitkumar kataria (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 10:59, 18 जनवरी 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय }} ओ ए...)
ओ एक ही कली की
मेरे साथ प्रारब्ध-सी लिपटी हुई
- दूसरी, चम्पई पंखुड़ी !
हमारे खिलते-न-खिलते सुगन्ध तो
हमारे बीच में से होती
उड़ जायेगी !