भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कि हम नहीं रहेंगे / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Sumitkumar kataria (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 09:51, 17 मार्च 2008 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमने

शिखरों पर जो प्यार किया

घाटियों में उसे याद करते रहे!

फिर तलहटियों में पछताया किए

कि क्यों जीवन यों बरबाद करते रहे!


पर जिस दिन सहसा आ निकले

सागर के किनारे—

ज्वार की पहली ही उत्ताल तरंग के सहारे

पलक की झपक-भर में पहचाना

कि यह अपने को कर्त्ता जो माना—

यही तो प्रमाद करते रहे!


शिखर तो सभी अभी हैं,

घाटियों में हरियालियाँ छाई हैं;

तलहटियाँ तो और भी

नई बस्तियों में उभर आई हैं।


सभी कुछ तो बना है, रहेगा:

एक प्यार ही को क्या

नश्वर हम कहेंगे—

इस लिए कि हम नहीं रहेंगे?