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तूतनख़ामेन के लिए-25 / सुधीर सक्सेना
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सोने दो,
सोने दो,
तूतनखामेन को
काल की असीम बाँहों में
खुल गई नींद
गर तूतन की
बेचैनी में भीग जाएगा वह
ओस में पत्थर की तरह
दीदे फाड़-फाड़ कर देखेगा अंधेरे में
गर झाँक भी लिया बाहर
किसी रास्ते
जान नहीं सकेगा वक़्त
गो, एक भी रेत घड़ी नहीं है
पिरामिड के बाहर
रेत के अपरिमित विस्तार में
गर बाल भी लिया चिराग
किसी तरह चकमक से
फड़फड़ाता रहेगा
पंछी की तरह
गो, एक भी कैलेंडर नहीं है
पिरामिड की दीवारों पर
ऎसे में
कितना असहाय होगा
तवारीख़ हो चुका
तूतनखामेन
कि जान नहीं सकेगा
अपने जागने की तारीख़ ।