भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तूतनख़ामेन के लिए-26 / सुधीर सक्सेना

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:28, 19 जनवरी 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुधीर सक्सेना |संग्रह=काल को भी नहीं पता / सुधीर सक्सेन...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सब कुछ है

पर घड़ी नहीं है

तूतन की कलाई में


रत्न हैं, आभरण हैं, कंगन हैं,

मणिबंध हैं, अंगूठियाँ हैं, बाजूबंद हैं

पर घड़ी नहीं है

एक भी रत्न-मंजूषा में ।


बहुत बड़ी ग़लती की तुमने

ग़लती की बहुत बड़ी तूतन !

अब भुगतो अनन्त-काल


अगर जागना ही था तो

फलाँ सदी में,

फलाँ वर्ष, फलाँ मास में,

फलाँ तारीख़ में

फलाँ बजे का

अलार्म लगाकर

सिरहाने

एक टिक-टिक करती

घड़ी तो रख ली होती


तुम जागते न जागते

वो उतने बजे घनघनाती ज़रूर

जितने बजे की चाबी भरी होती तुमने

जादू की डिबिया में

हठात ।