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बेचैन सफ़र / लोकमित्र गौतम

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मैं तो सोच रहा था
मेरी चुप्पी तुमसे सब कुछ कह देगी
मेरा मौन तुम्हारे अन्तस में
स्वतः मुखरित हो जाएगा
लेकिन लगता नहीं है कि बात बनेगी
बनेगी भी तो पता नहीं
कितना वक्त लगेगा
मेरा धैर्य अब जवाब दे रहा है
मैं अब अपनी बात कहे बिना
रह नहीं सकता

सोचता हूँ शुरूआत कहाँ से करूँ
वैसे एक आइडिया है
जो शायद तुम्हें भी पसन्द आए
आओ बातचीत के मौजूदा क्रम को
बदल लेते हैं
आज जवाबों से
सवालों का पीछा करते हैं

पता है
हम तुम क्षितिज क्यों नहीं बन पाए ?
इसलिए कि मैं तो तुम्हें धरती मानता हूँ
मगर तुम मुझे आसमान नहीं समझतीं
तुम्हें लगता है
तुम पर समानुपात का नियम
लागू नहीं होता
मगर एक बात जान लो
मैं भी हमेशा
पाइथागोरियन प्रमेय नहीं रह सकूँगा
मेरी समझदारी का विकर्ण हमेशा ही
तुम्हारी ज़्यादती के लम्ब
और नासमझी के आधार के
बराबर नहीं होगा
मैं द्विघाती समीकरणों का
एक मामूली-सा सवाल हूँ
कितने दिनों तक उत्तरविहीन रहूँगा ?
क्यों मुझे फार्मूलों की गोद में डाल रही हो ?
तुम्हें पता है न
मैं बहुत प्यासा हूँ
मेरे हिस्से के मानसून का अपहरण न करो

शायद तुम्हें मालूम नहीं
मैं धीरे धीरे रेत बनता जा रहा हूँ
इतनी ज़्यादती न करो
कि मैं पूरा रेगिस्तान बन जाऊँ
तुम्हें क्या लगता है
इस उम्र में मुझमें प्रयोगों का नशा चढ़ा है ?
भुलावे में हो तुम
इस उम्र में
मैं थामस अल्वा एडिसन बनने का
रिहर्सल नहीं कर सकता
मेरा बचपन जिज्ञासाओं की आकाशगंगा
निहारते गुजरा है
मुझे समय को परछाईयों से
और धूप को ज़िन्दगी से
नापने की तालीम मिली है
मैं इसी विरासत की रोशनी में
अपने मौजूद होने को दर्ज कर रहा हूँ
जिन्हें तुम प्रयोग कहती हो
दरअसल वह मेरे स्थायित्व की खोज का
बेचैन सफ़र है