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चोरिका / संतोष कुमार चतुर्वेदी

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माँ बताती थी हमें अक्सर यह बात कि
प्यास को महसूसने वाले ही
जानते है प्यास की महत्ता को
भूख का दंश भुगतने वाले ही
पहचानते हैं अनाज के मर्म को
बाकी तो महज लफ्फाजी करते हैं
माँ भूख-प्यास के सरगम से वाकिफ थी भलीभांति
इसलिए उसने नखलिस्तान की दुर्गम लय पर गाना सीखा था
आज भी वह शीशे के टुकड़े पर सहजता से नाचती दिख जाती थी
इस बात की परवाह किये बिना कि
लहुलुहान हो सकती है वह किसी भी क्षण

एक गृहिणी थी माँ
और इसी नाते कहा जा सकता है यह कि
उसकी अपनी कोई कमाई भी नहीं थी
दिन-रात उसके खटने को
श्रम की फेहरिस्त से सदियों पहले ही गायब किया जा चुका था

जैसे गौरैया ने बनाया अपना खोंता
और एक भी तिनका कम नहीं पड़ा कहीं
जैसे मधुमक्खियों के लिए मकरन्द
और फूलों की महक और बढ़ गयी
जैसे धूप ने पिया चुल्लू भर-भर कर पानी पूरे दिन
फिर भी धीमा नहीं पड़ा नदियों का प्रवाह
वैसे ही माँ ने चोरिका बचाया
और कहीं भी कुछ कम नहीं पड़ा

माँ गृहिणी थी
फिर भी आपद-विपद में जब-जब पड़े कमासुत पिता
तो मजबूती से साथ खड़ी नजर आयीं माँ ही हमेशा

जब भी गाढ़ा वक्त आया
काम आया माँ का चोरिका
घर ने राहत की साँसे लीं भरपूर
हमारी जिंदगी का रंग थोड़ा और गाढ़ा हुआ
मिट्टी की उर्वरता पर
हमारा भरोसा थोड़ा और पुख्ता हुआ
पड़ोसियों की सख्त जरूरतों के समय
फुहारों की तरह दिखा चोरिका
दरवाजे से कोई भूखा वापस नहीं लौटा कभी
मोहल्ले भर की बेटियों के लिए
सौगातें ले कर आया यही

फिजूलखर्ची से जद्दोजहद की महक थी इसमें
अपनी जरूरतें कमतर करने की सनक थी इसमें
औरों को भी खुशहाल देखने की बनक थी इसमें

कमाई का तनिक भी अहम नहीं था
फिर भी श्रम था यह
चोरी का रंच मात्र भी आशय नहीं था कहीं इसमें
फिर भी यह चोरिका था
जिसे माँ ने बड़े जतन से बचाया था
खस्ताहाल दिनों के लिए