मुक्केबाज़ी के दस्ताने पहने बारिश की बूँदें
हज़ारों हज़ार
टूट कर गिरती हैं
और उनके थपेड़े मेरे कमरे पर ।
टिन की छत के नीचे
भीतर मेरा कमरा रोया करता है
बिस्तर और कागजों को गीला करता हुआ ।
कभी-कभी एक चालाक बारिश
मेरे कमरे के पिछवाड़े से होकर भीतर आ जाती है
धोखेबाज़ दीवारें
उठा देती हैं अपनी एडिय़ाँ
और एक नन्हीं बाढ़ को मेरे कमरे में आने देती हैं ।
मैं बैठा होता हूँ अपने द्वीपदेश बिस्तर पर --
और देखा करता हूँ अपने मुल्क को बाढ़ में,
आज़ादी पर लिखे नोट्स,
जेल के मेरे दिनों की यादें,
कॉलेज के दोस्तों के ख़त,
डबलरोटी के टुकड़े
और मैगी नूडल
भरपूर ताक़त से उभर आते हैं सतह पर
जैसे कोई भूली याद
अचानक फिर से मिल जाए ।
तीन महीनों की यंत्रणा
सुईपत्तों वाले चीड़ों में मानसून --,
साफ धुला हुआ हिमालय
शाम के सूरज में दिपदिपाता ।
जब तक बारिश शान्त नहीं होती
और पीटना बन्द नहीं करती मेरे कमरे को
ज़रूरी है कि मैं
ब्रिटिश राज के ज़माने से
ड्यूटी कर रही अपन टिन की छत को सांत्वना देता रहूँ,
इस कमरे ने
कई बेघर लोगों को पनाह दी है,
फिलहाल इस पर कब्ज़ा है नेवलों,
चूहों, छिपकलियों और मकड़ियों का,
एक हिस्सा अलबत्ता मैंने किराए पर ले रखा है,
घर के नाम पर किराए का कमरा --
दीनहीन अस्तित्व भर ।
अस्सी की हो चुकी
मेरी कश्मीरी मकान-मालकिन अब नहीं लौट सकती घर,
हमारे दरम्यान अक्सर खूबसूरती के लिए प्रतिस्पर्धा होती है --
कश्मीर या तिब्बत ।
हर शाम
लौटता हूँ मैं किराए के अपने कमरे में
लेकिन मैं ऐसे ही मरने नहीं जा रहा,
यहाँ से बाहर निकलने का
कोई रास्ता ज़रूर होना चाहिए,
मैं अपने कमरे की तरह नहीं रो सकता,
बहुत रो चुका मैं
क़ैदख़ानों में
और अवसाद के नन्हें पलों में ।
यहाँ से बाहर निकलने का
कोई रास्ता ज़रूर होना चाहिए,
मैं नहीं रो सकता --
पहले से ही इस कदर गीला है यह कमरा ।