Last modified on 25 जून 2015, at 19:36

मन कुछ का कुछ हो गया / रामानन्द दोषी

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:36, 25 जून 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामानन्द दोषी |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मन कुछ का कुछ और हो गया आई पाती आज तुम्हारी

चाँद उगा कोई उन्मन है
और किसी के पुलक नयन हैं
सौ-सौ अर्थ लगाती दुनिया
यह तो अपना-अपना मन है
बोलो मैं क्या अर्थ लगाँ
समझूँ औरों को समझाऊँ
पुलक उदासी घेरे बैठी छवि मुस्काती आज तुम्हारी

जब भी संयम घट भर आता
नेह निगोड़ा ढुरका जाता
बैरी व्यथा कथा अनहोनी
सम्बल दुःख कातर कर जाता
खुल कर यह पहले मुस्काए
फिर आनत लोचन भर लाए
जाने क्यों यह बात नहीं मुझको बिसराती आज तुम्हारी

शाश्वत प्यास बुझाता जल है
याकि नयन का ही मृगछल है
ज्ञान मोह की सीमा रेखा
अपनी ही तृष्णा पागल है
चीर आवरण झाँक चला था
छाया माया आँक चला था
अगर कहीं प्रिय याद न मुझको फिर आ जाती आज तुम्हारी