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खोना-पाना / सुधीर सक्सेना
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हम जनमते हैं अबोध
अज़नबी और अनभिज्ञ
हम सीखते हैं ककहरा
और खो देते हैं बचपन
हम सीखते हैं वर्णमाला
और खो देते हैं जवानी
हम दुरुस्त करते हैं हिज्जे
और शुरू करते हैं नुक्तों पर बहस
कि हो जाते हैं सहसा बूढ़े
वर्ष दर वर्ष हम खोते चले जाते हैं
कभी अपना घर, कभी अपना प्यार, तो कभी अपना दर्द ।
इतना कुछ खोने के बाद
हम पाते हैं मौत
तो कुछ भी नहीं खोते ।
पाने को कुछ नहीं बचता,
मौत को पाने के बाद ।