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दो पद / मानबहादुर सिंह

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             1
यह बाबू कुछ नहीं सुन रहा,
इस फ़ाइल से उस फ़ाइल तक, मकड़ी जाल बुन रहा ।
कब से खड़ा चिरौरी करता, मेरी पेन्शन कहाँ फँसी है
सेवामुक्त हुआ मैं कबका, नाव किनारे पहुँच धँसी है ।
साहब तक काग़ज़ पहुँचाता, बस दस्तख़त भर ही तो करना
दस रुपए दे रहा कहता, सौ से नीचे काम न बनना ।
कहते हैं कायथ खटकीरा, जाने नहीं पराई पीरा
सुबह-सुबह घर भी जा करके, दे आया बच्चों को खीरा ।
मगर आज फिर टरका देगा, बस भाड़ा कल पुनः लगेगा
बीस रुपए भी ले लेता, कम से कम कल वक़्त बचेगा ।
फ़ाइल, दस्तख़त और मुहर में, घात लगी बैठी आज़ादी
सारी प्रगति यहीं आ उलझी, बुनती है केवल बरबादी ।
सीधा सहज काम जो क्षण का, बरसों फँसकर माथ धुन रहा
                         यह बाबू कुछ नहीं सुन रहा ।।

             2
यह दंगा काना कंजा है,
इसका देसी हाथ मगर परदेशी ख़ूनी पंजा है ।
इकतरफ़ा देखे यह जालिम एक तरफ़ बिल्कुल अन्धा है
जो गड़ास इसके हाथों में महज किसी का धन्धा है ।
गरदन काट गढ़ें जो कुरसी, उनकी जाति भव्य कोने में
वे प्रभुता के सौदागर हैं, ख़ून बदलते हैं सोने में ।
तुम भी तो अब फार हार, सूई पर मरते पाग़ल होकर
जैसे खेत पड़ा हो बंजर, मारो मरो मेड़ को बोकर ।
दुश्मन जिस मैदान छिपा है, उसे छोड़ लड़ने का मतलब
साँप छोड़ उसके निशान को, पीट कर रहे अपना करतब ।
हिन्दू मारो, मुस्लिम मारो, असमी या पंजाबी मारो
सुखवन डाल कहीं वे बैठे, तुम झगड़ो घर अपना जारो ।
बाल नोच अपने पछताओ, इसका तन मन सब गंजा है
                          यह दंगा काना कंजा है ।