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दृश्य : दो / कुमार रवींद्र

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[द्रोण का आश्रम। उससे थोड़ी दूरी पर पथ के निकट एक वृक्ष की ओट में खड़ा मन्त्रमुग्ध एकलव्य। पृष्ठभूमि में हस्तिनापुर के गवाक्ष और कंगूरे सूर्य-किरणों में नहाए अपनी स्वर्णिम आभा बिखेर रहे हैं। पर एकलव्य तो टकटकी बाँधे उस गेरुए ध्वज को भक्तिभाव से निहार रहा है, जिस पर आचार्य द्रोण का मृगचर्म पर रखे कमंडल के साथ धनुष-बाण का चिह्न अंकित है। गहरी भाव-तरंगों में डूब-उतरा रहा है वह]

विचार-स्वर : अपने सपने के सम्मुख
मैं हूँ आज खड़ा।
यह द्वीप मनोरथ का,
मेरी इच्छाओं का
उजला-उजला;
लगता है जैसे मेरे पुण्यों का विहान।
असमंजस की वह काली रात समाप्त हुई,
जब बार-बार मैं भटका था
सन्देहों में;
यह पूर्णकाम होने की बेला है अनुपम।
याद मुझे
वर्षों पहले
आचार्यश्रेष्ठ जब आये थे...

[एक स्मृति-चित्र पारदर्शिका के रूप में उभरता है। पर्वत की एक उपत्यका। घने जंगल से ढँके ढाल। एक पतली-सी पहाड़ी नदी तेज गति से बह रही है। कुछ झोंपड़ों के अलावा आसपास कोई बस्ती नहीं है। एक पहाड़ी पर एक गढ़ीनुमा मकान बना है। पहाड़ी पर से उतरते हुए दो पुरुष और एक नवकिशोर। एक पुरुष गौर वर्ण का दीर्घकाय है। सिर पर जटाएँ और शरीर पर यज्ञोपवीत। तपस्या का तेज श्मश्रुपूर्ण चेहरे पर झलक रहा है। मृगचर्म सीने पर बँधा हुआ। नीचे धोती पहने हैं। कन्धे पर तरकश; हाथ में लम्बा धनुष है। दूसरा पुरुष श्याम वर्ण सुगठित शरीर का। मँझोले कद का। घुटने तक का एक अधोवस्त्र पहने हैं। कमर में एक बडा छुरा और हाथ में एक भाला। सिर पर एक पट्टी बँधी है, जिसमें कुछ पंख खुसे हैं। किशोर भी एक छोटी-सी कमान हाथ में पकड़े है। पीठ पर छोटा तरकश। सिर पर मोरपंख लगाये हैं। उसकी मुद्रा उत्साहभरी है। गौर पुरुष को वह श्रद्धा से देख रहा है। श्याम पुरुष गौर पुरुष की बात को पूरे सम्मान और कुछ झिझक के साथ सुन रहा है।]

गौर पुरुष : भीलराज !
मैं चाहूँगा कि एकलव्य
इस घाटी से बाहर निकले।
बाँधों मत इसको
अपनी इन सीमाओं में;
बनने दो इसको प्रश्न अभी।
कालान्तर में
जब दूर-दूर के देशों का अनुभव लेकर
यह उत्तर बन कर आएगा,
तब तुमको मेरी बात समझ में आएगी।

मैं देख रहा इसका भविष्यः
दक्षिणावर्त का
यह त्राता होगा समर्थ।

श्याम पुरुष : भगवान् !
समर्थ हैं आप
किन्तु....
हम तो हैं बर्बर भील;
हमारी दृष्टि नहीं जा पाती है।
अपनी इस पर्वत-गुहा पार।
हम हैं वन-पुत्र,
हमारी सीमा निश्चित है।
आदेश हमें है नहीं
कि हम पर्वत छोड़ें;
हम तो उद्गम हैं नदियों के;
मैदान हमारे लिए घोर वर्जित प्रदेश।