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टुकड़े-टुकड़े रात कटी है / देवेन्द्र कुमार
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दिन डूबा औ रात हुई मन
यह भी कोई बात हुई मन ।
डार-डार पर टँगी हवाएँ
अपने रंग में रँगी हवाएँ
धुएँ-धुएँ बरसात हुई मन ।
टुकड़े-टुकड़े रात कटी है,
क्या कोई ख़ैरात बँटी है
कब की नींद हयात हुई मन ।
तालू से जुबान मिलती है
दाँतों की कोठी हिलती है
हर इच्छा आपात हुई मन ।