भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उड़ गए बालो-पर उड़ानों में / देवी नांगरानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उड़ गए बालो-पर उड़ानों में
सर पटकते हैं आशियानों में|


जल उठेंगे चराग़ पल भर में
शिद्दतें चाहिये तरानों में|

नज़रे बाज़ार हो गए रिश्ते
घर बदलने लगे दुकानों में|


धर्म के नाम पर हुआ पाखंड
लोग जीते हैं किन गुमानों में|


कट गए बालो-पर, मगर हमने
नक्श छोड़े हैं आसमानों में|


वलवले सो गए जवानी के
जोश बाक़ी नहीं जवानों में|


बढ़ गए स्वार्थ इस क़दर ‘देवी’
एक घर बंट गया घरानों में|