भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खुलता हूँ / कैलाश मनहर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:14, 18 अगस्त 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कैलाश मनहर |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
खुलता हूँ,
किसी वीरान बीड़ में बनी
कोठरी के
जर्जर किवाड़ों की तरह
चरमराता....
खुलता हूँ,
किसी दुर्गम पहाड़ की तलहटी के
गह्वर में
धुँधलाई आँखों की तरह
सरसराता....
खुलता हूँ,
किसी सूखे हुए पोखर के ढूहे पर
दीमक की
बाँबी से निकलती मिट्टी-सा
भुरभुराता.....
खुलता हूृँ,
किसी पके हुए फोड़े के मुहाने की
नोक पर
पैनी धार की तरह
थरथराता....
खुलता हूँ,
ताज़ा हवा के लिए
उजली हँसी के लिए,
सच की तलाश में,
जीवन की आस में --
बार बार खुलता हूँ...