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जितना जीता हूँ उतना मरता हूँ / कांतिमोहन ’सोज़’
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जितना जीता हूँ उतना मरता हूँ ।
इस तरह सुबहो-शाम करता हूँ ।।
मैं भी जीता हूँ धौंकनी की तरह
साँस लेता हूँ आह करता हूँ ।
ज़िन्दगी मेरी जान लेती है
ज़ीस्त को मैं तबाह करता हूँ ।
एक जन्नत में दोज़ख़ी बनकर
तेरे कूचे से क्यूँ गुज़रता हूँ ।
अब तो मेरा कोई वुजूद नहीं
अब ज़माने को क्यूँ अखरता हूँ ।
बुलबुला बनके फूट जाता हूँ
और क़यामत से बच निकलता हूँ ।
सोज़ मैं तो रवा-रवी<ref>जल्दी, हड़बड़ी</ref> में हूँ
क्यूँ तेरे दर पे जा ठहरता हूँ ।।
1-9-2015
शब्दार्थ
<references/>