भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ख़ुशी हो तो घर उनके हम कभी जाया नहीं करते / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

Kavita Kosh से
SATISH SHUKLA (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:42, 16 सितम्बर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब' | संग्रह = }} {{KKCatGha...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ख़ुशी हो तो घर उनके हम कभी जाया नहीं करते
मेरे घर जो कभी ग़म में बशर आया नहीं करते

सुनाई दे रही है ग़ैब से आती सदा मुझको
बहुत ही क़ीमती है वक़्त ये ज़ाया नहीं करते

बज़िद थे इसलिए तुमको मना लाये मगर सुनलो
ज़रा सी बात पर यूँ रूठकर जाया नहीं करते

उन्हीं के नाम का चर्चा हुआ है और होगा भी
जो सहते हैं सितम लेकिन सितम ढाया नहीं करते

यहाँ कुछ लोग वाक़िफ़ ही नहीं आदाबे-महफ़िल से
भरी महफ़िल से उठकर यूँ कभी जाया नहीं करते

गए हैं, जा रहे हैं लोग जायेंगे क़यामत तक
जहाँ से लौट कर वापस कभी आया नहीं करते

सुने को अनसुना कर दे मुसीबत में किसी की जो
'रक़ीब' ऐसे बशर के पास हम जाया नहीं करते