भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गाँव की हाट / अब्दुल मलिक खान
Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:17, 30 सितम्बर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अब्दुल मलिक खान |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
देखो लगी गाँव की हाट,
बड़े अनोखे इसके ठाट!
लड्डू, सेब, जलेबी, चक्की
सज धज कर बैठे थालों में
लाल गुलाबी पान बोलते-
हमको भी रख लो गालों में,
मूँछ मरोड़े घूमें जाट!
फरर-फर फर थान फट रहे
नमक-मिर्च के ढेर घट रहे,
कच्च-कच्च तरबूज कट रहे,
दुकानों पर लोग डट रहे,
बड़े मजे से खाते चाट!
गब्बा, सब्बा, रिद्दू, सिद्दू,
पहली बार हाट में आए,
लाए तेल चमेली का फिर-
हलवाई को वचन सुनाए,
चार किलो दो बरफी काट!
खरर-खरर सिल रहे घाघरे
चटपट चढ़ती जाए चूड़ी,
शाम हो गई, गाड़ी जोतो
रख दो अब बैलों पर जूड़ी,
पानी पीना गंगा घाट!
देखो बढ़ी गाँव की हाट!