ब्रह्माण्ड-एक खेल का मैदान / मुकेश चन्द्र पाण्डेय
ये अनंत ब्रह्माण्ड दरअसल एक खुला खेल का मैदान है
और वह खिलौने से वंचित खिझाया हुआ एक नन्हा बच्चा।
उसकी नज़रें हिमालय के जमे हुए ग्लेशियर हैं
जिनसे निरंतर रिसती है वेदना
इस तरह एक तेज़ बहाव नदी बहा ले जाती है सब कुछ
और सत्तर फीसदी की सतह पर तैरते हैं
अपेक्षाओं के उजड़े कसबे, गावँ व शहर...
उसके कानों में सुनाई पड़ती है
कई कल्पों के विलापों की कोलाहल
जबकि उसका मुख एक सुरंग द्वार है
जिसके ज़रिये शब्दों का एक जत्था कतार में
रेंगता हुआ उसके शिथिल हृदय से उपजता है
और सांसों के साथ ही फ़ैल जाता है पूरे भूगोल पर.
इस तरह ओज़ोन की परतें और भी मजबूती से स्थापित हैं
वायुमंडल पर...!
उसका धड़ आकाशगंगा सरीखी एक सर्पिल गैलेक्सी है
उसके प्रयास उँगलियों की थकान से चटकी उल्काएं
व विफलताएँ अंतरिक्ष पर मंडराते उपग्रह।
उसके घुटने जवाब दे गए वे ब्लैक होल हैं जिनकी गर्त में
बुरे वक़्त की सभी सदायें दफ़्न हैं...
जिस प्रकार चिड़िया गिरा देती है अपना एक पंख
उसकी पलकों से उम्मीदें टूट-टूट गिर रही हैं
उसके अधरों पर का कम्पन चुंबकीय आकर्षण की नकार है
व उसके माथे पर उभर आई हैं झुंझलाहट की कई असमायिक लकीरें
जिस प्रकार नन्हे हाथों से फिसलती है गेंद
उसकी पूरी देह अधीर है
उसके हाथों से बार-बार पृथ्वी फिसल रही है...!!