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ज़िन्दगी का वजूद / पृथ्वी पाल रैणा
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न वो महफ़िलें न वो सिलसिले,
न वो हौसले हैं हयात में ।
हमें जिस जुनून पे फ़ख़्र था,
वही दर्द बन के पसर गया।
क्या कहूँ ये आलमे ख़ौफ़ ही,
मेरी ज़िंदगी का वजूद है ।
मेरा जोशे इल्म नसीब से,
इक तश्नगी में बदल गया ।
कहीं हल्की हल्की दुखन सी थी,
उसे भूल जाने की चाह में;
कई दर्द दिल में सहेज कर,
मैं ग़मे जहां से गुजऱ गया ।