भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़िन्दगी की दौड़ में / पृथ्वी पाल रैणा
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र ‘द्विज’ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:31, 5 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पृथ्वी पाल रैणा }} {{KKCatKavita}} <poem> ज़िन्द...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
ज़िन्दगी की दौड़ में,
अब क्या कहें
बेबजह इतना भगाया बेबसी ने
कुछ पलों की चैन पाने के लिए
उम्र भर रोते तरसते ही रहे
चन्द लम्हे खुल के जीने के मिले तो
हम ने उनको कहकहों में खो दिया
खूब रोए वक़्त की दादागिरी पर
हंसे भी,आंसू बरसते भी रहे
इस जहाँ में कितनी भी कोशिश करो
जीत पाना ख़ौफ़ से मुमकिन नहीं
कुछ नहीं तो ख़ुद से घबराने लगोगे
मन के दामन में हज़ारों छेद जो हैं
समझ पाए वह भला कैसे कभी कुछ
मन के बहकावे में जो जीता रहे
रीत की अंधी अनोखी बंदिशों में
अनगिनत पर्तें, हज़ारों भेद जो हैं