भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बात क्या आदमी की बन आई / मीर तक़ी 'मीर'

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:13, 30 जनवरी 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मीर तक़ी 'मीर' }} बात क्या आदमी की बन आई<br> आस्माँ से ज़मीन...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बात क्या आदमी की बन आई
आस्माँ से ज़मीन नपवाई

चरख ज़न उसके वास्ते है मदाम
हो गया दिन तमाम रात आई

माह-ओ-ख़ुर्शीद-ओ-बाद सभी
उसकी ख़ातिर हुए हैं सौदाई

कैसे कैसे किये तरद्दद जब
रंग रंग उसको चीज़ पहुँचाई

उसको तरजह सब के उपर दे
लुत्फ़-ए-हक़ ने की इज़्ज़त अफ़ज़ाई

हैरत आती है उसकी बातें देख
ख़ुद सारी ख़ुद सताई ख़ुद राई

शुक्र के सज्दों में ये वाजिब था
ये भी करता सज्दा जबीं साई

सो तो उसकी तबीयत-ए-सर्कश
सर न लाई फ़रो के तुक लाई

'मीर' ना चीज़ मुश्त-ए-ख़ाक आल्लाह
उन ने ये किबरिया कहाँ पाई