भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरे भीतर कई समंदर / पृथ्वी पाल रैणा
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र ‘द्विज’ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:21, 5 अक्टूबर 2015 का अवतरण
चल पड़ी आँधियाँ विचारों की,
ख़ौफ फिर सर पे चढ़ के डोलेगा।
जैसे तैसे बचा के रक्खा था,
चैन सारा लुटा के दम लेगा।
कितना मजबूर हूँ कि ख़ुद के लिए,
एक पल का सुकून दूभर है।
दिल पे यूँ हो रहा जगत हावी,
मुझ को खुद में मिला के दम लेगा।
हौसला पस्त, सोच भी बेदम,
किसको मालूम था कि यह होगा;
आज जो बेबसी का आलम है,
मेरी हस्ती मिटा के दम लेगा।
ग़म छुपाने से कम नहीं होते
मेरे भीतर कई समन्दर हैं
सब्र के इतने इम्तिहाँ होंगे
वक़्त चूलें हिला के दम लेगा