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मन करता है / रमेश राज
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पर्वत-पर्वत बर्फ जमी हो,
जिस पर फिसल रहे हों!
फूलों की घाटी हो कोई-
उसमें टहल रहे हों!
ऐसे कुछ सपनों में खोएँ,
मन करता है!
मन के बीच नदी हो कोई,
कल-कल, कल-कल बहती,
झरते पानी की वाणी में
ढेरों बातें कहती
हमको उसके शब्द भिगोएँ,
मन करता है!
औरों के मन की पीड़ा को
बाँटें हँस-हँस करके,
थके पथिक का साथ निभाएँ
साथी बनें सफर के।
पाँव सुदामा के हम धोएँ
मन करता है!
टहनी-टहनी फूल खिले हों
पात-पात मुसकाएँ!
फुनगी-फुनगी चिहुँक-चिहुँककर
चिड़िया गीत सुनाएँ!
ऐसे कुछ सपनों में खोएँ,
मन करता है!