भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फायदा / रघुवीर सहाय

Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:08, 6 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रघुवीर सहाय |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जो जेब नहोती कुरते में
तो पैसे भला कहाँ धरते?
जो घास न होती धरती पर
तो गदहे घोड़े क्या चरते?
जो हवा न होती यहीं कहीं
तो गुब्बारों में क्या भरते?
जो सूँड न होती हाथी के
तो हाथी का हम क्या करते?

बेसूँड न हाथी खा पाता
बेसूँड न हाथी पी पाता,
कहने को हाथी कहलाता
पर बिना हाथ का हो जाता।
वह मुँह ललचाता रह जाता
दो दाँत दिखाता रह जाता
फायदा फकत इतना होता
उसको जुकाम न हो पाता!

-साभार: रघुवीर सहायक रचनावली-2, बाल साहित्य, 405