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स्वर्ण जयंती वर्ष में एक स्मृति / विष्णु खरे

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आज़ादी के पहले पैदा क्या हो गया
इस स्वर्ण जयंती वर्ष में
जिसे देखो वह 15 अगस्त 1947 के
मेरे अनुभव जानना चाहता है

मानो उस दिन भी
मैं साढ़े सत्तावन बरस का था
और अपने सारे ताज़िबों और विचारों का
ऐतिहासिक निचोड़ उन्हें तुरंत दे डालूँगा
और वे मेरे पास इस तरह जाएँगे
जैसे किसी आराध्य या महाराज के सानिध्य से

उन्हे क्या बताऊँ कि जिसने अभी
एक वर्ष पहले ही अपनी माँ को मरते हुए देखा हो तपेदिक़ से
उस साढ़े सात साल के लड़के की
क्या स्मृति हो सकती है भारतमाता के मुक्त होने की
सिवा सिर्फ़ इसके कि मुन्नू ख़ाँ हेडमास्टर ने
ऐलान किया था कि छिंदवाड़ा मेन बोर्ड प्राइमरी स्कूल के सारे लड़के
और मास्टर सुबह जमा होंगे पुलिस ग्राउंड पर
अच्छी ड्रेस मे जहाँ परेड होगी झंडा फहराया जाएगा
और मिठाई बँटेगी

लगभग मुँह अँधेर एक गिलास पानी पीकर
गया मैं ग्राउंड को जहाँ छिंदवाड़ा की बड़ी भीड़ जमा हो रही थी
छोटे और बड़े लड़कों को अलग-अलग घेरों में
स्कूलवार बैठाया गया खुले में
शामियाने के नीचे कुर्सियों पर बैठे थे
कोयला खदानों के मालिक मैनेजर ठेकेदार सिनेमा चलाने वाले
शहर के सेठ और साहूकार
अफ़सर और नेता तो थे ही
मास्टर कुछ दूर अलग बैठाले या तैनात किए गए थे

जमकर बारिश होती थी उन दिनों सावन-भादों में
लेकिन आज़ादी के पहले ही दिन चटख़ धूप निकली थी
सलामी और भाषण होने तक सिर पर चिलचिला रहा था सूरज
कुछ खाने की बात क्या पीने को ओक-भर पानी नहीं था
मास्टर और बड़े लोगों को कोई ध्यान नहीं था
बारह बजते-बजते जब छुट्टी मिली तब बिलबिलाए लड़कों में
ताक़त बाक़ी नहीं थी
जिस मिठाई की उम्मीद थी शामियाने में ही बँट गई
किसी और को देखने तक को न मिली
लौटे हम लोग भूखे प्यासे
रास्ते के कुछ घरों से माँगा पानी और पेट दुखने तक पिया
कि अचानक नज़र पड़ी छींद के नुकीले पत्तों पर
लाई लगे बंदनवारों पर
टूट पड़े छोटे पंसारियों वकीलों मास्टरों बाबुओं के बेटे
सरकारी सजावटी द्वारों पर लगाई गई
ज्वार और मक्के की लाई पर चिड़ियों-कौओं की तरह
जिनमें शामिल हो गए नए पंजाबी सिंधी सरदार लड़के भी
इस अभूतपूर्व दृश्य को देखकर लूट में आ मिले हिम्मत कर
वे निचले छोकरे भी जो स्कूल नहीं जाते थे
मुफ़्त की चीज़ के लिए होड़ मचने लगी
काफ़ी ऊँचाई तक आज़ादी के द्वार बंदनवार अपनी सजावट खो बैठे
देखते-देखते

17 अगस्त 1997 को स्वतंत्रता की राष्ट्रव्यापी स्वर्ण-जयंती के ब्यौरों के बीच
जब अख़बार में यह पढ़ा कि लाल किले में
इकट्ठा किए गए बच्चों को
तीन बार जयहिंद कहने के बावज़ूद
सारे वक्त खाने-पीने को कुछ न मिला
तो मुझे 1947 के छिंदवाड़ा और 1997 की दिल्ली के बीच
पचास साल के बावज़ूद ऐसी समानता से विचित्र आश्चर्य हुआ
लेकिन यह भी ख़याल आया
कि दिल्ली में पत्तों के दरवाजों-बंदनवारों का चलन नहीं
फिर पचास बरस पहले छिंदवाड़ा के छोटे तालाब के पास
जो लाई हमने खाई थी
वह अब आठ रुपये के प्लास्टिक में बिकती है
उसे यहाँ लाई के नाम से कोई पहचानता भी नहीं
उसका राष्ट्रीय नाम अब पॉप कॉर्न है
उससे तोरण नहीं सजाई जातीं उसे भूखे बच्चे अब नहीं खाते
पिछले पचास बरसों में कुछ दूसरी चीज़ों की लूट हुई है
जो उसमें शामिल है
वे उसे वक्त काटने के लिए शौक़िया या अजीर्ण रोकने के लिए
चबाते हैं गोल्डन जुबली चैरिटी मेगा शोज़ और ईवेंट्स के दौरान