भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुमने अपनी ईज़ल समेट ली / रमणिका गुप्ता

Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:20, 13 अक्टूबर 2015 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुमने एक सपना रचाया था
सजाया था उसके गिर्द
तुमने कल्पनाएं रचीं थीं
प्यारी-प्यारी बातें गढ़ीं थीं
पौराणिक कथाओं से बिम्ब
परियों से शब्द
पंखों से रंग
पत्थरों से आकार लेकर
तुमने एक चित्र रचा था
बुत गढ़ा था
तुम्हीं चितेरे तुम्ही छेनी
और उस पर तुम अपने ही सपनों का अपना ही
चित्र आंक रहे थे
अपनी ही मूर्ति गढ़ रहे थे
‘उसका’ नाम धर कर...
चित्र पूरा हुआ
मूर्ति खड़ी हो गई
तुम्हारी उम्मीद के विरुद्ध
वह उस पर उकिर आई
तुम्हारी समझ और सहन दोनों के बाहर

तुम अपने को देखने के अभ्यस्त
उसकी पुतलियों में अपनी नजरें खोज रहे थे
तुम अपनी मुस्कान पर मोहित
उसके होठों में खोज रहे थे अपनी हंसी
तुम अपना चेहरा देखने को बेकल
उसके मुंह पर टटोल रहे थे अपनी छवि
तुमने सपने गढ़े थे अपने
पर तुम्हारी कूचियों से वह उकिर आई
तुम्हारी कल्पना की उड़ान में
तुम्हारे पंखों पर वह कहीं लदक गई

तुम्हारी बातें तोता-मैना की कथा-सी
रोज एक ही इबारत दोहरातीं
जीवन की कथा के बाहर की चर्चा-सी
तुम्हारे शब्द परियों से पारदर्शी
पारे से तरल
ठोस मिट्टी के रंगों की पकड़ से बाहर
पहचान से दूर
पौराणिक कथाओं के बिम्ब से
महलों के खण्डहरों में भटकते समय के अभिलेख थे
जो वर्तमान को नहीं ढंक पा रहे थे
वर्तमान को ढंकने के लिए
चाहिए-ताजा रंग
जो खून से ही मिल सकता है
मुर्दा यादों पर ही-तस्वीरें रचने में पटु
मूर्ति गढ़ने में माहिर
यादों को ढोने के आदी
अपनी सूरत न देखकर घबरा उठे तुम...

तुमने भरा जो प्याला
उसके मुंह पर दे मारा था
रंगीला था कोमल था
तुमने जो छेनी फेंकी थी ना

तेज़ थी नुकीली थी छोटी थी नाजुक थी
पर चोट करने में घातक थी
तस्वीर हिल गई इस बार
रेखाएं हट गईं
घूम गईं
तुम जिधर कूची फेंकते रंग भरी लकीरें सरक जातीं
तुम रंग उड़ेलते खीझ कर
तो लकीरंे धब्बों के नीचे चू जातीं
देह का कोई ना कोई कोना उघरा ही रह जाता
मिट नहीं पाता
ऊब कर तुमने कैन्वस ही फाड़ डाली
यह कह कर कूची तोड़ डाली
”यह तस्वीर तो केवल अपने ही रूप से प्यार करती है
आप हुदरी कैन्वस पर मनमानी उभर आती है“
तोड़ डाली छेनी यह कह कर
”यह मूरत तो अपना ही रूप गढ़ती है
बोलती है डोलती है
और सपनों में सशरीर जागती है
चलती है जड़ नहीं
मिट्टी का लोंदा नहीं
कि जैसे चाहों ढाल लो!“ और
तुमने अपनी ईज़ल समेट ली

तुमने एक-एक कर चित्र के अंग-भंग करना शुरू किया
सबसे पहले तुमने उसके पांव मिटाए
उसकी गति जकड़ी
एक बड़ा धब्बा घृणा का उसकी जांघों पर पोत दिया
कूची से मथ दी उसकी कोख़
उसके दूध में घोल दी स्याही
फिर एक-एक कर
उसके होंठ आंखें पुतलियां पलकें

केश कान माथा भवें
गोया कि पूरे चेहरे पर
कूची फेर छेनी से गोदने लगे चेहरा
अपनी पुरानी आदत के अनुसार

गढ़ना-तोड़ना
खेलना-मिटाना तुम्हारी आदत है
वह ही पागल थी जो तस्वीर अंकवाने
मूरत गढ़वाने
बैठ गई तुम्हारे सामने नंगी होकर
अपना रूप

इस बार तस्वीर की रेखाएं
मूर्ति की भंगिमाएं जिंदा हो गईं
उनकी आत्मा डोल गई
फितरत कांप गई प्रतिकार में
और तुमने अपनी हथौड़ी-छेनी बांध ली

तुम उसे वह तुम्हें
अपने आप को प्यार करने का दोष मढ़ते रहे
तुम्हारे रंग चुक गए
उसकी लकीरें फीकी पड़ने लगीं
आकृतियां भड़कने लगीं
परिवेश बदल गए...!