Last modified on 13 अक्टूबर 2015, at 23:25

औरत / स्नेहमयी चौधरी

Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:25, 13 अक्टूबर 2015 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

औरत होने के साथ-साथ
कहीं लिख आया था
उसका भाग्य भी
जिसे प्रकृति ने नहीं
पुरुष समाज ने लिखा था
हर युग मकें पुरुष उसे लिखने का
अधिकार ले बैठा था
औरतों ने भी उसे पढ़ लिया रट लिया
औरतें औरतों पर ही निर्णय देने लगीं
हाय इन औरतों को क्या हुआ
कोई पूछे उनसे
उनकी अपनी बुद्धि को तो
लकवा मार गया था
कई शताब्दियों पहले
लकवा भी वंश परंपरा से चलने वाली
कोई छूत की बीमारी है क्या?
अरे कोई पुरुष उन्हें
डॉक्टर तो तलाश दे!