भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चार : पुरबिया सूरज / धूमिल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:31, 5 फ़रवरी 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धूमिल |संग्रह =सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्र / धूमिल }} प...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पुरबिया सूरज

एक लम्बी यात्रा से लौट

पहाड़ी नदी में घोड़ों को धोने के बाद

हाँक देता है काले जंगलों में चरने के लिए

और रास्ते में देखे गए दृश्यों को

घोंखता है ।


चांद

पेड़ के तने पर चमकता है
जैसे जीन से लटकती हुई हुक

और रेवा के किनारे

मैं द्रविड़ की देह से बहता लहू हूँ

मैं अनार्यो का लहू हूँ

नींद में जैसे

छुरा भोंका गया ।