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वसन्त की रात-2 / अनिल जनविजय

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दिन वसन्त के आए फिर से आई वसन्त की रात

इतने बरस बाद भी, चित्रा! तू है मेरे साथ

पढ़ते थे तब साथ-साथ हम, लड़ते थे बिन बात

घूमा करते वन-प्रांतरों में डाल हाथ में हाथ


बदली तैर रही है नभ में झलक रहा है चांद

चित्रा! तेरी याद में मन मेरा उदास है

देखूंगा, देखूंगा, मैं तुझे फिर एक बार

मरते हुए कवि को, चित्रा! अब भी यह आस है