{{KKRachna | रचनाकार=
मैं पिरो देना चाहता हूं,
कविता की इन,
चंद पंक्तियों में,
शोषण के शिकार,
उस आम आदमी की,
व्यथा को।
दिन भर काम करने के,
उपरान्त भी,
नहीं होता सही आंकलन,
जिसकी दिन भर की,
मेहनत का ।
बंद है जिसकी किस्मत,
चंद ठेकेदारों की मुठ्ठी में,
साक्षात प्रारूप है वह,
इस गले- सडे. समाज की,
हैवानियत का ।
अपनी जागती हुई आंखों में,
वह संजोये हुए है सपने,
कि कब बदलेगी व्यवस्था,
ताकि मिल सके उसे,
अपने काम की पूरी मजदूरी ।