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सबके दिल में इक डर है / ज़ाहिद अबरोल

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सब के दिल में इक डर है
रहबर तो सौदागर है

ग़म को अगर पानी समझो
हर इक शख़्स समुन्दर है

जिसकी घर में न इज़्ज़त हो
घर में रह के भी बेघर है

आंख सभी की है दहलीज़
दिल सब का अस्ली दर है

सूरज अपने मंडल का
मालिक हो के भी नौकर है

ख़्वाहिश कैसे बस में करें
इस की ज़बां तो गज़ भर है

ख़्वाब में सब अंदर “ज़ाहिद”
होश में सब कुछ बाहर है

शब्दार्थ
<references/>