भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जो दिलो-जिगर में उतर गई / फ़िराक़ गोरखपुरी

Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:53, 8 नवम्बर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जो दिलो-जिगर में उतर गई वो निगाहे-यार कहाँ है अब ?
कोई हद है ज़ख्मे-निहाँ की भी कि हयात वहमो गुमाँ है अब

मिली इश्क़ को वो हयाते नौ कि आदम का जिसमें सुकून है
ये हैं दर्द की नई मंज़िलें न ख़लिश न सोज़े-निहाँ है अब

कभी थीं वो उठती जवानियाँ कि गुबारे-राह नुजूम थे
न बुलंदियाँ वो नज़र में हैं न वो दिल की बर्के-तपाँ है अब

जिन्हें ज़िन्दगी का मज़ाक था, वही मौत को भी समझ सके
न उमीदो-बीम के मरहले में ख्याले-सूदो-ज़ियाँ है अब

न वो हुस्नो इश्क़ की सोहबत न वो मजरे न वो सानिहे
न वो बेकसों का सुकूते-ग़म न किसी को तेग़े-ज़बाँ है अब

ये फ़िराक़ है कि विसाल है कि ये महवियत का कमाल है
वो ख्याले-यार कहाँ है अब वो जमले-यार कहाँ है अब

मुझे मिट के भी तो सुकूँ नहीं कि ये हालतें भी बदल चलीं
जिसे मौत समझे थे इश्क़ में, वो मिसाले-उम्रे-रवाँ है अब ?

वो निगाह उठ के पलट गयी, वो शरारे उड़ के निहाँ हुए
जिसे दिल समझते थे आज तक वो 'फ़िराक़' उठता धुआँ है अब