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आषाढ़ के दिनों में / मुकेश चन्द्र पाण्डेय

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आजकल झड़ी लगी रहती है..
दिन में, रात में, सोते में, जगने में।
घर में, बाहर, यात्रा और चिंतन में भी।
हृदय में, मस्तिष्क में, स्वप्नों में,
उन्माद या धैर्य
कह दिए गए शब्दों में व अबोले जो कुछ रह गए उनमें-
घोषणाओं या फिर मौन अवस्था में।

माचिस को घिसो तो ईंधन छूट पड़ता है,
व चूल्हों के मुख पर गालों तक आंसू।

आषाढ़ के इन दिनों क्षितिज तलक भीगा है,
गीला सूर्य रंग छोड़ता है।

हर छत से बूँदें रिसती हैं,
जांगों तक पानी का घेरा।

आजकल ज़्यादा वक़्त अक्सर खोल में ही बीतता है
कुछ एक सामान सुरक्षित,
-रेनकोट की जेब में प्लास्टिक से लिपटी
"उम्मीद"
और
-एक छतरी के नीचे तुलसी का पौंधा।