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बोलो, कुछ तो बोलो / संजय पुरोहित
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हटो हटो 
देखते नहीं वे आ रहे हैं
 
हाथों में लिये 
त्रिशूल गण्डाेसे फरसे 
पिशाच राखस 
उधर भी देखो
खाली करो मार्ग 
आ रहे हैं  
हुंकारते छातियां पीटते 
शैतान हैवान 
ए.के.सैंतालिस से लैस 
कांधे पर लिये मोर्टार
जानते हो 
इन अंधे हुजूमों में 
आयी कहां से
पगों में कड़क हाथों में फड़क
जिज्ञासू न बनो 
वो तुम थे, तुम ही थे 
जो रहे 
विचारों के भारी भरकम 
खण्डर काव्यम रचने में 
खिसकती धरती से अनजान 
मूंझ की खाट बैठ 
देखते रहे नाटकों का नुक्कचड 
बोलो 
अब कितने भाठे हैं 
है कितनी छडि़यां छैनियां 
शस्त्राीगार में तुम्हाकरे 
कुछ सोचा है 
या 
सौंप दोगे 
मिनखों की दुनिया वनमानूषों को 
फकत विचार की फूंकनी से 
धकेल दोगे एक और नस्लध 
पराजय की ओर।
बोलो
कुछ तो बोलो
	
	