भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धीमा जहर / रेखा चमोली
Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:19, 13 दिसम्बर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रेखा चमोली |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
बहुत बुरा है
खुद को खत्म होते देखना
देखना कि
कुछ भी
व्यवस्थित नहीं हो पा रहा
घर में नहीं मिलता सुकून
रिश्तों में नहीं रह गयी गर्माहट
हर वक्त घेरे रहती है
एक अजीब सी झुंझलाहट
जो टी वी ना देखने या
अखबार ना पढने से
कम नहीं हो जाती
डाक्टर की तरह चीजों को देखना
आसान नहीं है
हमारे खत्म होने के दौरान ही
दूर कहीं
एक किशोर पेड होता है कम
मुरझाता है कोई फूल खिलने से पहले
विलुप्त या संरक्षित सूची में दर्ज होता है
किसी चिडिया, मछली ,बीज,या वनराजि का नाम
सुबह घर सके निकली बच्ची
शाम को नहीं लौटती वापस
बहुत सी चीजों के बारे में तो हमें पता भी नहीं चलता
जब हम हो रहे होते हैं खत्म
अकेले कभी नहीं होते।